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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता


भगवान् श्रीकृष्णने गीतामें कहा है-'संशयात्मा विनश्यति' जो मनुष्य संशय करता रहता है, वह इस लोक या परलोक-कहीं भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। संदेहवृत्ति उसका नाश कर देती है।

मैं अमुक कार्य करूँ अथवा न करूँ? यह संशयवृत्ति हमें उस कार्यको नहीं करने देती। हम सोचते ही रह जाते है कि इस कार्यको करें या न करें। अन्ततः वैसे-के-वैसे ही रह जाते हैं।

अर्जुनके सामने कौरवोंकी बड़ी-बड़ी सेनाएँ सजी हुई खड़ी थीं। उनमें उनके कुछ बन्धु-बान्धव तथा दूरके रिश्तेदार भी थे, जिनसे उसका रक्तका सम्बन्ध था। कौरव अन्यायके पथपर चल रहे थे और राज्यमेंसे पाँच गाँव भी पाण्डवोंको नहीं देना चाहते थे। अर्जुन सोचने लगे कि स्वयं अपने परिवारके सदस्योंका वध करनेसे तो भयानक पाप लगेगा। यदि इनका वध नहीं करता हूँ तो देवी द्रौपदीके अपमानका बदला नहीं उतरता है, न राज्य ही प्राप्त होता है। उलटे ये ही मुझे मार डालेंगे। उनके मनमें एक ओर दयाकी भावना थी, दूसरी ओर कर्तव्य तथा भावी जीवनके विचार। इन दोनोंमें द्वन्द्व मचा हुआ था। दया कहती थी कि ये तेरे भाई है, परिजन है, इनका वध मत कर। कर्तव्य कहता था, अन्याय और असत्य मार्गपर चलनेवाला कभी बन्धु और परिजन नहीं हो सकता। वह तो शत्रु है। प्राणोंका प्यासा है। इसलिये उसका वध कर देना चाहिये। वे संशयमें फँसे हुए थे कि किस पक्षमें निर्णय करें। इस स्थितिमें भगवान् श्रीकृष्णने उनकी सहायता की और कहा कि वृथा मोहमें मत पड़ो। अपना कर्तव्य पालन करो। इस संकेतको सुनकर अर्जुनका संशय दूर हो गया और वह युद्ध करनेको तैयार हो गया। जबतक संशयमें लगा रहा, तबतक शक्तियां पंगु रहीं।

यही हाल उस व्यक्तिका होता है जो खड़ा-खड़ा यही सोचता है कि क्या करूँ? किस ओर बढ़ूं? किसपर विश्वास करूँ, किसपर न करूं? कोई मेरी सहायता करेगा अथवा नहीं? मेरा स्वास्थ्य अमुक कार्यको सम्पन्न करनेके योग्य है अथवा नहीं? मेरी तैयारी परीक्षाके लिये उपयुक्त है अथवा अनुपयुक्त? अमुक व्यापारमें मुझे हानि होगा अथवा लाभ?

जो वास्तवमें कमजोर हैं या जिनकी तैयारी अपर्याप्त है, वे यदि संशय करें तो उचित भी माना जा सकता है, लेकिन खेद तब होता है, जब समर्थ और योग्य व्यक्ति सर्वसम्पत्र होते हुए भी अपनी शक्तियोंके प्रति संशय करते रहते हैं और उसके कुफल भोगते रहते हैं। संशयवृत्तिका तात्पर्य है स्वयं अपनी शक्तियोंके प्रति अविश्वास। जीवनके आनन्द और उन्नतिके लिये इस प्रवृत्तिको छोड़ दीजिये।

एक बार रात्रिमें एक व्यक्तिको लघुशंका हुई। भयंकर जाड़ा था। उसकी पत्नीने सफेदीके तसलेको ला दिया। पतिने उसीमें मूत्र कर दिया। सुबह उठे तो वह मूत्र सफेदीमें मिला हुआ दिखायी दिया। पति संशयसे भर गये। जरूर मेरे मूत्रमें कोई विकार है। यह सफेद-सफेद क्या तत्त्व मूत्रमार्गसे बहने लगा है? मुझे कोई भयंकर मूत्र-रोग हो गया है। वैद्यके पास गये। उन्होंने बिना पूर्ण जाँच-पड़तालके कह दिया कि तुम्हारे मूत्रसे शक्कर आने लगी है। तुम्हें डाइबिटीज रोग हो गया है। सम्भव है और भी कोई घृणित रोग हो। यह सुनकर वह व्यक्ति रोगी बन गया। निरन्तर इसी भ्रम-संदेहमें रहता कि मुझे भयंकर रोग हो गया है और मैं जल्दी ही मृत्युका ग्रास बन जाऊँगा। वैद्यजी दवाइयाँ देते और उससे रुपया लेते रहे। एक दिन संयोगसे उनका उतरा हुआ चेहरा देखकर मैंने ही पूछा, 'कहो मोडूलालजी, क्या बात है?' उन्होंने उत्तर दिया, 'डाइबिटीज हो गयी है। इलाज चल रहा है।' और गहराईमें गये, तो उन्होंने अपने मूत्रमें सफेदी आनेकी बात कही।

'क्या आपने मूत्रकी वैज्ञानिक परीक्षा करायी है?'

'नहीं, डाक्टरके पास तो नहीं गया।'

'तो पहले शफाखानेमें जाकर मूत्रकी परीक्षा जरूर कराओ। फिर इलाजकी सोचो। इस इलाजसे काम नहीं चलेगा।'

दूसरे दिन वे डाक्टरके पास शीशीमें मूत्र ले गये। वैज्ञानिक परीक्षा हुई, तो मालूम हुआ शक्कर नहीं आती है। और भी कोई खराबी नहीं है।

यह नतीजा देखकर वे फिर उसी रातके विषयमें सोचने लगे। उनकी पत्नीको स्मरण हुआ कि उन दिनों दिवालीके सिलसिलेमें उनके यहाँ पुताईका काम चल रहा था। कलीसे सना हुआ तसला पास ही अंदर पड़ा था। उसीमें पेशाब कराया गया था। इसलिये वह सफेदी पुतनेवाली कलईकी थी। गाँठ खुल गयी। संशय दूर हो गया। उसी दिनसे मोडूलालजी स्वस्थ होने लगे और कुछ दिनों पश्चात् बिलकुल स्वस्थ हो गये। संशयका पर्दा छाते ही मनुष्य हतप्रभ हो जाता है। उसका विवेक पंगु हो जाता है। दूर होनेपर फिर प्रभावान् हो उठता है।

अपने अध्यापक-जीवनकी एक घटना मेरे स्मृति-पटलपर सजग हो आयी है। मानिकलाल इंटरके विद्यार्थी थे, परिश्रमी और साधारणतया बुद्धिमान्!

संयोगसे वार्षिक परीक्षामें तर्कशास्त्र (Logic) में फेल हो गये। फेल होते ही उनके मनमें कुछ ऐसा संशय बैठा कि जब कभी तर्कशास्त्रका ह्वास होता, उसमें मन-ही-मन डरते रहते। यह नहीं कि पढ़ते न हों। पढ़ते वे बहुत थे, पर मनमें यह संशयवृत्ति रखकर कि यह विषय मुझे कम आता है, मैं कहीं आगे भी फेल न हो जाऊँ।

दूसरे वर्ष वार्षिक परीक्षा फिर आयी। मानिकलालकी तैयारी बहुत थी। वर्षभर दिल लगाकर पढ़ा था। और विषयोंके पर्चे अच्छे हुए। दूसरे दिन तर्कशास्त्रकी परीक्षा थी। आजसे ही उनके मनमें धुकधुकी थी, मनका संशय उभर रहा था। मैं सुपरिटेंडेंटके रूपमें परीक्षा दिलाने साथ गया था। रातमें तीन बजे उठता हूँ तो क्या देखता हूँ कि टट्टीकी बिजली जल रही है, इस वक्त कौन है जो टट्टीमें है। देरतक देखता रहा, पर कोई न निकला। आवाज दी, तो उत्तर नदारद। साहस कर अंदर झोंका, तो क्या देखता हूँ कि मानिकलाल डरे-सहमेसे अंदर तर्कशास्त्र पढ़ रहे हैं।

'तुम्हारी तैयारी बहुत काफी है।' मैंने कहा।

'मुझे तो कुछ भी याद नहीं। क्या होगा?'

'घबराओ नहीं। तुम निश्चय ही पास होओगे।'

समझा-बुझाकर किसी प्रकार उस रात उन्हें उस समय तो सुला दिया। दूसरे दिन परीक्षा हुई। आश्चर्य! महान् आश्चर्य!! मानिकलाल गिरे मुँह निढाल चेहरा और रोनी सूरत बनाये हुए हमारे पास आये और रोकर कहने लगे 'फेल हो गये।'

मैंने कहा, 'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। तुम्हारी बड़ी पक्की तैयारी थी। फेल नहीं हो सकते।'

और जब नतीजा आया, तो वास्तवमें मानिकलाल फेल थे। बादमें मालूम हुआ कि तर्कशास्त्रमें ही वे फेल हुए थे। उनका अपनी शक्तियोंके प्रति संशय ही उन्हें ले डूबा था। विषयका ज्ञान उन्हें काफी था।

फिर तो तीन सालतक निरन्तर वे तर्कशास्त्रमें ही फेल होते रहे और अन्ततः निराश होकर उन्होंने पढ़ना ही छोड़ दिया। संशय ही उनके मानसिक पतनका प्रधान कारण था। इसी शत्रुके कारण वे पतनकी चरम सीमापर पहुँच चुके थे।

यह ठीक है कि कुछ विषय कठिन होते है और प्रायः उनमें उत्तीर्ण होनेके लिये बहुत परिश्रम करना पड़ता है। लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं है कि आप अपनी शक्तियोंके प्रति अविश्वासी बन जायँ और संचित शक्तियोंको ही हाथसे निकाल दें। सदा संशय और अविश्वासके मोहजालमें फँसा हुआ व्यक्ति अपने लिये भी कुछ नहीं कर सकता तो दूसरोंके लिये क्या करेगा?

कभी-कभी व्यक्तिमें पूरी शक्तियाँ होती हैं। फिर भी वह संशय ही करता रहता है। हमें अपनी बहिनकी एम. ए. की परीक्षाकी स्मृति आ रही है। उन्होंने काफी तैयारी की थी। रात-दिन पढ़ती रहती थीं। जब परीक्षा आयी, तो कहने लगीं, मेरी तैयारी पूरी नहीं है। शायद पास भी नहीं होऊँगी। परीक्षामें न जानेंके बहाने किये। कहने लगीं, हमें बुखार है। थर्मामीटरसे टेम्परेचर लिया, जो वह न निकला। फिर-कहा, पेटमें दर्द है। सर दर्द कर रहा है। हम समझ गये कि संशयवृत्ति ही खराबी कर रही है। वही बात आगे चलकर सच भी निकली।

'तुम केवल परीक्षा-भवनमें चक्कर पर्चा ले आना। फीस तो वापस मिलेगी नहीं।'

ताँगा किराये कर उन्हें ले गया। उनका मन धुकपुक कर रहा था। परीक्षा-भवनसे कोई भी परीक्षार्थी आध घंटे पहले नहीं निकल सकता अतः जब वे बैठ गयीं तो लिखना पड़ा। याद बहुत था। आध घंटेमें जो प्रश्र किया, बहुत ही अच्छा हुआ। साहस आया। कलम तेजीसे चलने लगी। वे तीन घंटे सिर ऊपर उठाये लिखती रहीं! जब परीक्षा-भवनसे बाहर निकलीं, तो उन्हें ऐसा लगा कि पर्चा बहुत संतोषजनक हुआ है।

फिर तो उन्होंने पूरी परीक्षा दी। जब नतीजा आया, तो द्वितीय श्रेणीमें उत्तीर्ण हुईं। यदि वे संशयको न पछाड़तीं, तो संशय उन्हें तनिक-सी देरमें तोड़-मरोड़कर रख देता। संशयका माया-जाल तोड़नेसे ही सत्यका प्रकाश होता है।

संशय एक प्रकारका अँधेरा है, जो हमारे मन और आत्मापर छा जाता है और कुछ देरके लिये नेत्रोंको झूठे मोहमें बाँध देता है।

कहा है-

'इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि'

अर्थात् असत्यको त्यागकर जो सत्य विचार, उसीको ग्रहण करना चाहिये। यदि आप हर किसीपर शक या संदेह करते रहते हैं, तो भी संशयके मायाजालमें अटके हुए हैं। हो सकता है कि किसी विशेष व्यक्तिने आपको धोखा दिया हो या आपसे विश्वासघात किया हो, किंतु प्रत्येकको अविश्वासकी दृष्टिसे मत देखिये। संसारको अपना विरोधी मत समझिये।

कुविचारों, जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों, मनके कुसंस्कार और अज्ञानके बन्धनोंसे स्वयं मुक्त हो जाइये और दूसरोंको भी मुक्त कर दीजिये।

स्वर्गतो धिया दिवम् (यजुर्वेद) सद्बुद्धिसे ही स्वर्ग प्राप्त होता है। जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं हुई है, उसे सुख-शान्ति नहीं मिल सकती।

जिस प्रकार आप दूसरोंके प्रति संदेह रखते हैं, वैसे ही स्वयं अपने विषयमें संदेह करते रहते हैं। अपने प्रति अविश्वास करना अपनी उत्पादक शक्तियोंको पंगु बना लेना है। इससे जीवन अस्थिर और निश्चय संदिग्ध रहता है। स्मरण रखिये, संशय चाहे किसी भी रूपमें क्यों न हो, मनुष्यका जीवन नष्ट कर देता है।

'संशयात्मा विनश्यति'

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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